पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ A.I.R.1982 S.C.1473 के प्रसिद्ध मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 23 के क्षेत्र को पर्याप्त विस्तृत कर दिया है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि 'बेगार' से तात्पर्य ऐसे काम या सेवाओं से है जिसे किसी व्यक्ति से बलपूर्वक बलातश्रम बिना पारिश्रमिक दिये लिया जाता है। अनुच्छेद 23 केवल 'बेगार' को ही नहीं, बल्कि इसी प्रकार के सभी 'बलपूर्वक' लिए जाने वाले कार्य को भी वर्जित करता है; क्योकि इससे मानव की प्रतिष्ठा एवं गरिमा पर आघात पहुँचता है। अनुच्छेद 23 प्रत्येक प्रकार के 'बलातश्रम' को वर्जित करता है और यह इन दोनों में कोई अंतर नहीं करता कि बलातश्रम के लिए पारिश्रमिक दिया गया है अथवा नही। यदि किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा के विरुद्ध या दबाव से कार्य करना पड़ता है तो भले ही उसे पारिश्रमिक मिला हो, वह अनुच्छेद 23 के अधीन 'बलातश्रम' माना जायेगा। 'बलातश्रम' कई तरीके से लिया जा सकता है। इसमें शारीरिक दबाव, विधिक दबाव जहाँ किसी विधि के अधीन न कार्य करने पर दण्ड का उपबन्ध होता है। इस तक ही सीमित नहीं है बल्कि आर्थिक कठिनाइयों से उत्पन्न दबाव भी शामिल है, जहाँ उसे कम पारिश्रमिक में कार्य करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अनुच्छेद 23 के विस्तृत निर्वचन में ऐसे श्रम भी आते है। प्रस्तुत मामले में एशियाड प्रोजेक्ट में लगे श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी 9.25 रुपये में से जमादार ने प्रति श्रमिक 1 रुपया अपना कमीशन काटकर केवल 8.25 रूपये ही दिया था जिसके परिणामस्वरूप उन्हें न्यूनतम मजदूरी नहीं मिली थी। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिधारित किया कि यह अनुच्छेद 23 का सरासर उल्लंघन था और सम्बंधित प्राधिकारियों को निर्देश दिया कि ठेकेदारों से वह धन वापस लेकर श्रमिकों को दिलायें और उनके विरुद्ध समुचित कार्यवाही करें। अनुच्छेद 23 और 24 न्यूनतम मजदूरी अधिनियम,1948 के अधीन नागरिकों के मूल अधिकारों के उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध समुचित कार्यवाही करना राज्य का एक सविधानिक कर्त्तव्य है।