मानव दुर्व्यापार समाज का सबसे घृणित रूप है। यह एक ऐसी आपराधिक प्रथा है जिसमें मानव का एक वस्तु की तरह शोषण करके लाभ कमाया जाता है। इस कुप्रथा में फंसे पीड़ितों पर पूरी तरह से नियन्त्रण किया जाता है जिससे वे रोटी, कपड़ा, पैसा तथा अन्य सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इनके व्यापारियों पर पूर्णतया निर्भर हो जाते हैं। इस शोषण में इन शोषितों से देह व्यापार करवाना, इनके अंगों का व्यापार करना, इत्यादि शामिल हैं। आधुनिक दासता का सबसे भयावह रूप मानव दुर्व्यापार है। इस ओर समाज का ध्यान आकर्षित है परन्तु कुछ सफलता हाथ नहीं लगती। इस प्रकार मानव की गरिमा खंडित होती है। इस व्यापार के मूल कारण गरीबी, अशिक्षा तथा समाज में व्याप्त कई कुरीतियाँ हैं। इस व्यापार में महिलाओं का ही नहीं बल्कि बच्चों के मूलभूत अधिकारों का भी हनन होता है। इस व्यापार में शामिल अधिकांश महिलाएं पिछड़े और विकासशील देशों की होती हैं। आज भारत में मानव दुर्व्यापार हेतु कई मैरिज ब्यूरो, नौकरी दिलाने वाले संस्थान एवं कोचिंग सेंटर, मसाज पार्लर, डांस बार, आदि संलग्न हैं। भारत के उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को बंधुआ मजदूरी उन्मूलन के लिए अधिकृत किया हैं। आयोग ने प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया है तथा विशेषतः गोंडा सर्कस केस में यौन शोषण के प्रकरण में पीड़ितों को मुक्त कर दोषियों को कानून के हवाले किया। मानव दुर्व्यापार एक ऐसी त्रासदी है जिसके उन्मूलन हेतु समाज व सरकार को मिलकर कार्य करना होगा।
मानव दुर्व्यापार अवधारणा का क्रमिक विकास
आज के बदलते हुए वैश्विक परिदृश्य में "मानव दुर्व्यापार" का रूप बदल कर "नया दास व्यापार" हो गया है। इस उपमा का अर्थ है कि जिन लोगों का अवैध व्यापार किया जाता है, वे ऐसी परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करते है जैसा कि पुराने समय में दास लोग किया करते थे । अतः अवैध मानव व्यापार सीमाओ से ऊपर उठकर तथा विश्व के सभी देशो को प्रभावित करते हुए चिंता का एक महत्वपूर्ण विषय बन गया है।
आम बोलचाल की भाषा में अवैध व्यापार को ऐसे व्यापार के रूप में परिभाषित किया जाता है,जिसमे विभन्न नैतिक,सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक कारणों की वजह से संलिप्त नही होना चाहिए। अतः अवैध ड्रग व्यापार ,अवैध शस्त्र व्यापार तथा अवैध मानव व्यापार जैसे शब्दों का सृजन हुआ। अवैध मानव व्यापार की अवधारणा, शोषण की उस आपराधिक प्रथा की ओर इशारा करती है जिसमे लाभ अर्जित करने के लिए मनुष्य के साथ बिकने वाली वस्तुओं की भांति व्यवहार किया जाता है। आइए , देखते है कि अवैध मानव व्यापार की अवधारणा कैसे विकसित हुई। अवैध मानव व्यापार की समस्या ग्रीक शहर राज्यो के समय से ही विद्यमान है। ग्रीक राज्य तथा उनकी देखा-देखी अन्य मुख्यतः वेश्यावृति के लिए लड़कियों और महिलाओं का अवैध व्यापार करते थे । ट्रेफिक अर्थात "अवैध व्यापार" शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग महिलाओं के तथाकथित "गोरे दास व्यापार" के सदर्भ में किया गया था तथा अवैध व्यापार का पहला ज्ञात चरण मध्यकालीन युग माना जाता है। जब प्रतिवर्ष पूर्वी प्रशिया,चैकोस्लोवाकिया ,पोलैण्ड, लिथुआनिया, एस्टोनिया तथा लतविया से हजारो महिलाओं और बच्चों को इटली और दक्षिणी फ़्रांस के दास बाजारों में बेचा जाता था। दूसरा चरण मध्यकालीन युग के अंतिम भाग तथा नवजागरण काल के आरंभ के दौरान में आया जब मुख्यतः रूस और यूक्रेन से महिलाओ और बच्चों का अवैध व्यापार किया जाता था और उन्हें इटली और मध्य-पूर्व में दासो की तरह बेच दिया जाता था।बोस्निया, अल्बानिया तथा कॉकेसियन पर्वतो से भी दास लाए जाते थे। उनका हश्र भी इटली और फ़्रांस के दास के रूप में हुआ। जब ओटोमन साम्राज्य नेकांस्टेंटीनोयल पर विजय प्राप्त की तब पश्चिमी यूरोप में जाने वाला अवैध व्यापार का यह मार्ग बंद हो गया। तब पश्चिमी यूरोपीय देशो ने दासो के स्त्रोत के रूप में पश्चिमी अफ्रीका की ओर ध्यान देना शुरू किया। सर्बिया ,अल्बानिया, बोस्निया, तुर्की, रूस था पूर्वी यूरोप के आधुनिक दासो ने अपने आप को मध्यकालीन युग तथा नवजागरण काल के आंरभिक समय के दासो के साये में ढाल लिया है। ज्यादा कुछ नहीं बदला है, सिवाय इसके की अब ये महगे कपड़े पहनते है, मोबाइल फोन रखते हैं और महगी गाड़ियों में सफ़र करते है। रोचक बात यह है कि आज सम्मानित एवं इज्जतदार लोग अवैध व्यापार में संलिप्त है जिससे इनकी पहचान करना मुश्किल हो जाता है।
समकालीन अवैध मानव व्यापार के ऐतिहासिक पूर्व लक्षण है। पुरातन दास व्यापार, "गौरे दास व्यापार" तथा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पुरुषो और महिलाओ का दासतावत परिस्थितियों में शोषण यह बताता है कि अवैध मानव व्यापार का रूप निरंतर बदल रहा है। 19वीं शताब्दी में दासता पर प्रतिबंध लगने से पहले पश्चिमी यूरोप और सयुक्त राज्य ने ट्रांस-एटलांटिक दास व्यापार से बहुत लाभ कमा लिया था। खदानों और बागानों में काम करने के लिए दासो को पानी के जहाजो द्वारा अफ्रीका से अमेरिका भेजा जाता था। ट्रांस -एटलांटिक दास व्यापार को समाप्त करने में ब्रिटेन मुख्य संचालक शक्ति था। ब्रिटिश संसद ने वर्ष 1807 में दासता पर प्रतिबंध लगा दिया था। वर्ष 1833 में एक मिलियन में से तीन-चौथाई दासो को मुक्त कराते हुए ब्रिटेन के उपनिवेशों में भी दास प्रथा समाप्त कर दी गई। इसी समय तथा इसके बाद भी कई दशको तक ब्रिटेन ने अपनी नोसैनिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए पुरे विश्व में अपनी दासता रोधी नीति को लागू का किया। अतः ब्रिटेन ने एक अंतराष्ट्रीय पुलिस बल की कई विशेषताओं को आत्मसात किया, एस अबतक बहुत कम ही हुआ है।
"गोरे दास व्यापार" शब्द की उत्पति इग्लैंड में महिला फैक्ट्री कार्मिकों का वर्णन करने के दौरान हुई और बाद में इसका प्रयोग यूरोप में वेश्यावृति के लिए गोरी महिलाओ की दासता के लिए किया गया। सयुक्त राज्य में चीनी अप्रवासियों को "येलो पेरिल" पीला खतरा के रूप में देखा जाता था। यूरोप में अरब और ऑटोमन प्राधिकारियों को "गोरे दासो के व्यापारी" के रूप में देखा जाता था जो "गोरी महिलाओ" को वेश्यावृति में धकेल देते थे। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा 20वीं शताब्दी के पूर्वाध में कई सरकारो ने "गोरी दासता" के खिलाफ हस्ताक्षर किए । इसके परिणामस्वरूप वर्ष 1904 में "गोरे दासो के व्यापार" के दमन के लिए एक अंतराष्ट्रीय समझौते का सूत्रीकरण हुआ जिस पर पेरिस में हस्ताक्षर किए गए और बाद में लगभग 100 सरकारों ने इसका अनुसमर्थन किया। वर्ष 1904 का समझौता गोरी जाति से अन्य पुरुषो तथा लड़को तथा महिलाओ और लड़कियों के लिए मान्य नहीं था इसके अतिरिक्त ,इसमे ऐसा कोई प्रावधान नहीं था जो विधि प्रवर्तन के विस्तार से संबंधित हो। इन सबका परिणाम यह हुआ कि अवैध व्यापार निरंतर पनपता चला गया।
इसने एक अन्य संधि अर्थात 1910 का गोरे दास अवैध व्यापार प्रतिबंध अभिसमय (1910 का अभिसमय) को अंगीकृत करने के लिए प्रेरित किया। इस अभिसमय के अनुप्रयोग का क्षेत्र भी 1904 के समझौते की तरह ही था तथा गोरी महिलाओ के अवैध व्यापार और वेश्यावृति और/या यौन शोषण के बीच का संपर्क पहले की तरह बना रहा । इनके बीच केवल एक मुख्य अंतर यह था कि 1910 के अभिसमय में राष्ट्रों से इस कृत्य को समाप्त करने तथा इसके लिए जिम्मेदार लोगो के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करने का आग्रह किया गया था।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद लीग ऑफ़ नेशन्स ने अवैध व्यापार की समस्या को गंभीरता से लिया और लीग ऑफ़ नेशन्स के अनुबंध के पाठ में अवैध व्यापार सबंधी एक प्रावधान शामिल करने का निर्णय लिया लीग ऑफ़ नेशन्स के तत्वाधान में अवैध व्यापार पर दो और अंतराष्ट्रीय समझोते अंगीकार किए गए। इनमें पहला था महिलाओ एवं बच्चों के अवैध व्यापार दमन संबंधी अंतराष्ट्रीय अभिसमय ,1921 इस अभिसमय ने वर्ष 1920 के अभिसमय द्वारा निर्दिष्ट अवैध व्यापार के वर्णन की पुष्टि की । परिणामतः वेश्यावृत्ति और यौन शोषण को अवैध व्यापार के महत्वपूर्ण योजको के रूप में माना गया हालाँकि इस अभिसमय के शीर्षक से "गोरे दास" शब्दों को हटा दिया गया था। यह एक प्रकार से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा इस तथ्य कि किसी भी वर्ग ,पथ या नृजाति की महिलाएँ, बच्चे अवैध व्यापार के शिकार हो सकते है, की महत्वपूर्ण स्वीकृति थी। इसके अलावा,1921 का अभिसमय पिछले दस्तावेजों की तरह सिर्फ लड़कियों पर ही नही बल्कि लड़कियो और लड़को, दोनों के लिए लागू था। दूसरा दस्तावेज था पूर्ण आयु की महिलाओं के अवैध व्यापार के दमन संबंधी अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय 1933 , इस अभिसमय में भी अवैध व्यापार को उसी भाषा में वर्णित किया गया जैसा कि 1910 और 1921 के अभिसमयो में किया गया था क्योंकि केंद्र-बिंदु एक बार फिर वेश्यावृत्ति और यौन शोषण पर था। इसके अतिरिक्त,1933 के अभिसमय में अवैध व्यापार को अंतर्राष्ट्रीय भूमिका के कायम रखा गया क्योकि इसमें अन्य राष्ट्रों में किए गए कृत्यों को शामिल किया गया था। तथापि, लीग ऑफ़ नेशन्स द्वारा अंगीकृत की गई दो सन्धियां निष्प्रभावी रही क्योकि इनमें वेश्यावृति का घरेलू प्रवृति के मुद्दे के रूप में देखा जाता रहा और इसलिए यह सन्धियां राष्ट्रों को इस प्रथा को समाप्त करने पर मजबूर नहीं कर सकी।
इसके बाद, संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 1949 में मानव अवैध व्यापार तथा वेश्यावृत्ति द्वारा शोषण का दमन संबंधी अभिसमय को अंगीकार किया। इस अभिसमय का 49 देशों ने अनुसमर्थन किया था। यह दस्तावेज पिछली सभी संधियों का एक समेकित संस्करण था। इसके बावजूद 1949 अभिसमय कुछ मायनों में पिछली संधियों से भिन्न था। उदाहरणतः इसने अवैध व्यापार और वेश्यावृत्ति के बीच एक सुस्पष्ट संबंध निर्मित किया जिसे शोषण के रूप में देखा जाता है। अभिसमय के शीर्षक में भी यह देखा जा सकता है। इसके आलावा, यह एक ऐसा दस्तावेज है जो लिंग-भेद के संबंध में तटस्थ है और मानता है कि वेश्यावृत्ति के लिए पुरुष और लड़को का भी अवैध व्यापार हो सकता है। इसके अतिरिक्त ,1949 अभिसमय में राष्ट्र के अंदर तथा राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर होने वाले /दोनों प्रकार के अवैध व्यापार को शामिल किया गया है।
इसने एक अन्य संधि अर्थात 1910 का गोरे दास अवैध व्यापार प्रतिबंध अभिसमय (1910 का अभिसमय) को अंगीकृत करने के लिए प्रेरित किया। इस अभिसमय के अनुप्रयोग का क्षेत्र भी 1904 के समझौते की तरह ही था तथा गोरी महिलाओ के अवैध व्यापार और वेश्यावृति और/या यौन शोषण के बीच का संपर्क पहले की तरह बना रहा । इनके बीच केवल एक मुख्य अंतर यह था कि 1910 के अभिसमय में राष्ट्रों से इस कृत्य को समाप्त करने तथा इसके लिए जिम्मेदार लोगो के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करने का आग्रह किया गया था।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद लीग ऑफ़ नेशन्स ने अवैध व्यापार की समस्या को गंभीरता से लिया और लीग ऑफ़ नेशन्स के अनुबंध के पाठ में अवैध व्यापार सबंधी एक प्रावधान शामिल करने का निर्णय लिया लीग ऑफ़ नेशन्स के तत्वाधान में अवैध व्यापार पर दो और अंतराष्ट्रीय समझोते अंगीकार किए गए। इनमें पहला था महिलाओ एवं बच्चों के अवैध व्यापार दमन संबंधी अंतराष्ट्रीय अभिसमय ,1921 इस अभिसमय ने वर्ष 1920 के अभिसमय द्वारा निर्दिष्ट अवैध व्यापार के वर्णन की पुष्टि की । परिणामतः वेश्यावृत्ति और यौन शोषण को अवैध व्यापार के महत्वपूर्ण योजको के रूप में माना गया हालाँकि इस अभिसमय के शीर्षक से "गोरे दास" शब्दों को हटा दिया गया था। यह एक प्रकार से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा इस तथ्य कि किसी भी वर्ग ,पथ या नृजाति की महिलाएँ, बच्चे अवैध व्यापार के शिकार हो सकते है, की महत्वपूर्ण स्वीकृति थी। इसके अलावा,1921 का अभिसमय पिछले दस्तावेजों की तरह सिर्फ लड़कियों पर ही नही बल्कि लड़कियो और लड़को, दोनों के लिए लागू था। दूसरा दस्तावेज था पूर्ण आयु की महिलाओं के अवैध व्यापार के दमन संबंधी अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय 1933 , इस अभिसमय में भी अवैध व्यापार को उसी भाषा में वर्णित किया गया जैसा कि 1910 और 1921 के अभिसमयो में किया गया था क्योंकि केंद्र-बिंदु एक बार फिर वेश्यावृत्ति और यौन शोषण पर था। इसके अतिरिक्त,1933 के अभिसमय में अवैध व्यापार को अंतर्राष्ट्रीय भूमिका के कायम रखा गया क्योकि इसमें अन्य राष्ट्रों में किए गए कृत्यों को शामिल किया गया था। तथापि, लीग ऑफ़ नेशन्स द्वारा अंगीकृत की गई दो सन्धियां निष्प्रभावी रही क्योकि इनमें वेश्यावृति का घरेलू प्रवृति के मुद्दे के रूप में देखा जाता रहा और इसलिए यह सन्धियां राष्ट्रों को इस प्रथा को समाप्त करने पर मजबूर नहीं कर सकी।
इसके बाद, संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 1949 में मानव अवैध व्यापार तथा वेश्यावृत्ति द्वारा शोषण का दमन संबंधी अभिसमय को अंगीकार किया। इस अभिसमय का 49 देशों ने अनुसमर्थन किया था। यह दस्तावेज पिछली सभी संधियों का एक समेकित संस्करण था। इसके बावजूद 1949 अभिसमय कुछ मायनों में पिछली संधियों से भिन्न था। उदाहरणतः इसने अवैध व्यापार और वेश्यावृत्ति के बीच एक सुस्पष्ट संबंध निर्मित किया जिसे शोषण के रूप में देखा जाता है। अभिसमय के शीर्षक में भी यह देखा जा सकता है। इसके आलावा, यह एक ऐसा दस्तावेज है जो लिंग-भेद के संबंध में तटस्थ है और मानता है कि वेश्यावृत्ति के लिए पुरुष और लड़को का भी अवैध व्यापार हो सकता है। इसके अतिरिक्त ,1949 अभिसमय में राष्ट्र के अंदर तथा राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर होने वाले /दोनों प्रकार के अवैध व्यापार को शामिल किया गया है।
मानव दुर्व्यापार की परिभाषा
वर्ष 1990 तक "मानव दुर्व्यापार" को बहुत संकीर्ण रूप में परिभाषित किया जाता था और अक्सर वेश्यावृति शब्द के साथ इसकी अदला-बदली की जाती थी। इसकी सबसे अधिक प्रयोग में लाई जाने वाली परिभाषा थी मुख्यतः विकासशील देशों तथा जिन देशों की अर्थव्यवस्था संक्रमण काल से जूझ रही है के व्यक्तियों का राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के पार अवैध एवं प्रच्छन्न आवागमन , जिसका अंतिम उद्देश्य नियोक्ता अवैध व्यापारकर्ता तथा आपराधिक संगठनों के साथ-साथ अवैध व्यापार से जुड़ीं अन्य गतिविधियों जैसे कि बलात् घरेलू श्रम फर्जी विवाह गुप्त रोजगार तथा फर्जी दत्तकग्रहण आदि जैसे काम करने वालों के लिए लाभ अर्जित करने के महिलाओं एवं लड़कियों को देह व्यापार या आर्थिक रूप से दमनकारी एवं शोषणकारी परिस्थियों में ढकेलना (संयुक्त राष्ट्र महासभा 1994) यह परिभाषा अपने प्रयोजन में बहुत ही संकीर्ण पाई गई और विश्व भर की सरकारों सिविल समाज के संगठनों तथा अन्य पणधारियो द्वारा यह महसूस किया गया कि अवैध मानव व्यापार की एक व्यापक परिभाषा विकसित करने की आवश्यकता है जो के बल महिलाओं और लड़कियों तक ही सीमित न हो बल्कि जिसमें पुरुष एवं लड़कों को भी शामिल किया जाए। परदेशीय संगठित अपराधों की गोचर बढ़ोतरी तथा दासतावत परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्तियो की दुर्दशा संबंधी चिंता के परिणामस्वरूप वर्ष 2000 में विशेषतः दबाने और दंडित करने के लिए एक संयुक्त राष्ट्र प्रोटोकॉल का सृजन हुआ इस प्रोटोकॉल ने परदेशीय संगठित अपराध के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र अभिसमय 2000 को मजबूती प्रदान की इस प्रोटोकॉल पर पालेरमो इटली में दिसम्बर 2000 में हस्ताक्षर किए गए । यह प्रोटोकॉल राष्ट्रों को बाध्य करता है कि वे अवैध मानव व्यापार को गैर-कानूनी घोषित करें इसमें यौन शोषण के उद्देश्य से किया गया अवैध व्यापार के अलग अन्य प्रकार के अवैध व्यापार के बारे में भी संदर्भ है। यह प्रोटोकॉल यह विर्निदिष्ट करता है कि परिभाषा में बताए गए माध्यमो से अवैध व्यापार के पीड़ित की भावी शोषण के लिए सहमति पूर्णतः असंगत है।
संयुक्त राष्ट्र अवैध व्यापाररोधी प्रोटोकॉल :- विशेषतः महिलाओं और बच्चों के अवैध मानव व्यापार को रोकने दबाने और दंडित करने संबंधी सयुक्त राष्ट्र प्रोटोकॉल आज अवैध व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय रूप से सर्वसम्मत परिभाषा है। भारत द्वारा भी इस नयाचार पर हस्ताक्षर किए गए है ।प्रोटोकॉल के अनुच्छेद के अनुसार :-
(क)"व्यक्तियों के अवैध व्यापार" का अर्थ होगा किसी व्यक्ति पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति की सम्मति प्राप्त करने के लिए उसे डरा धमका कर या बल प्रयोग करके अथवा जबरदस्ती, अपहरण, धोखाधड़ी , ठगी , शक्ति अथवा संवेदनशीलता की स्थिति के दुरूपयोग या भुगतान अथवा लाभ प्रदान करने अथवा प्राप्त करने के किसी रूप का प्रयोग करते हुए शोषण के प्रयोजनार्थ व्यक्तियो की भर्ती ,परिवहन,हस्तांतरण,आश्रय देना अथवा प्राप्ति शोषण में कम से कम दूसरों से वेश्यावृति करवाते हुए उनका शोषण अथवा यौन शोषण के अन्य रूप , बलात् मजदूरी अथवा सेवाएँ दासता अथवा दासता जैसी क्रियाएँ , ताबेदारी या अंगो को निकलना शामिल है,
(ख) यदि उप-अनुच्छेद(क) में इंगित किसी माध्यम का प्रयोग किया जाता है तो इस अनुच्छेद के उप-अनुच्छेद (क) में इंगित आशयित शोषण के प्रति व्यक्तियों के अवैध व्यापार के पीड़ित की सम्मति असंगत मानी जाएगी,
(ख) यदि उप-अनुच्छेद(क) में इंगित किसी माध्यम का प्रयोग किया जाता है तो इस अनुच्छेद के उप-अनुच्छेद (क) में इंगित आशयित शोषण के प्रति व्यक्तियों के अवैध व्यापार के पीड़ित की सम्मति असंगत मानी जाएगी,
(ग) शोषण के प्रयोजन से किसी बच्चे की भर्ती ,परिवहन,हस्तातरण,आश्रय देना या प्राप्ति को "व्यक्तियो का अवैध व्यापार" माना जाएगा चाहे इसमें इस अनुच्छेद के उप-अनुच्छेद (क) में इंगित माध्यमों/साधनों का प्रयोग नहीं किया गया हो",
(घ) "बच्चे" का अर्थ होगा अठारह वर्ष की आयु से कम का व्यक्ति।
अवैध व्यापार से निपटने के लिए भारत में बनाया गया विशेष कानून "अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956" है। इसमें तीसरे पक्ष जैसे कि वेश्यालय द्वारा वेश्यावृत्ति की सुविधा प्रदान करने, यौन क्रिया के लिए अपना शरीर बेचने वाले किसी व्यक्ति को रखने, उसकी कमाई पर अपना जीवनयापन करने, किसी व्यक्ति को वेश्यावृत्ति के लिए अधिप्राप्त करने प्रेरित करने अथवा कहीं ले जाने और वेश्यावृत्ति के स्थान पर किसी व्यक्ति को नजरबंद रखने के लिए सजा का प्रावधान किया गया है।
भारतीय कानून में वेश्यावृत्ति और अवैध व्यापार उस हद तक एक दूसरे से जुड़े हुए है की वाणिज्यिक यौन शोषण के लिए होने वाले अवैध व्यापार से I.T.P.A1956 द्वारा निपटा जाता है। I.T.P.A1956 में किसी व्यक्ति का अवैध व्यापार करने की कोशिश के लिए भी सजा का प्रावधान है। अतः किसी व्यक्ति का भौतिक रूप से अवैध व्यापार किए बिना ही यह कानून लागू हो जाता है। I.T.P.A1956 की धारा 5 में वेश्यावृत्ति के लिए किसी व्यक्ति की अधिप्राप्ति करने उसे रखने और उसे प्रेरित करने के बारे में उल्लेख दिया गया है। इस धारा के अनुसार वेश्यावृत्ति करवाने के लिए किसी व्यक्ति की अधिप्राप्ति करने का प्रयास करना और उसे वेश्यावृत्ति में ढ़केलने का प्रयास करना भी अवैध व्यापार माना जाएगा।
गोवा बाल अधिनियम 2003 ही एक ऐसी भारतीय सांविधि है जिसमें अवैध मानव व्यापार के सभी पहलुओं को शामिल किया गया है और यह बाल विशिष्ट भी है। संदर्भित अधिनियम के अनुसार बच्चे के अवैध मानव व्यापार का अर्थ है मौद्रिक अथवा किसी अन्य प्रकार के लाभ के लिए किसी व्यक्ति पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति की सम्मति प्राप्त करने के लिए उसे धमका कर या बल प्रयोग करके अथवा जबरदस्ती,अपहरण,धोखा-धड़ी,ठगी,शक्ति के दुरूपयोग अथवा सवंदनशीलता की स्थिति या भुगतान अथवा लाभ प्रदान करने अथवा प्राप्त करने के किसी रूप का प्रयोग करके,व्यक्तियों की,वैध अथवा अवैध तरीके से,सीमाओं के भीतर अथवा बाहर,अधिप्राप्ति,भर्ती,परिवहन,हस्तांरण,आश्रय देना अथवा प्राप्ति। मानव दुर्व्यापार की विस्तृत परिभाषा गोवा बाल अधिनियम 2003 में उपलब्ध है। यद्यपि यह बच्चों के अवैध व्यापार पर केंद्रित हैं किंतु परिभाषा व्यापक है। धारा 2(z) के अंतर्गत “चाइल्ड अवैध व्यापार” का अर्थ है वैधानिक या अवैधानिक तरीकों से देश की सीमा के अंदर या सीमा पार धमकी, बल प्रयोग अथवा किसी बाध्यकारी उपायों द्वारा, अगवा करके, झांसा देकर, धोखा देकर, शक्ति अथवा प्रभावशाली पद का दुरुपयोग कर अथवा धन के लेन-देन या लाभ द्वारा व्यक्ति के अभिभावक की स्वीकृति प्राप्त कर किसी आर्थिक लाभ अथवा किसी अन्य उद्देश्य से व्यक्ति की खरीद-फरोख्त, उसकी नियुक्ति, उसका परिवहन करना, हस्तांतरण करना, उसे अपने अधीन रखना या हासिल करना।
मानव दुर्व्यापार की परिभाषा I.T.P.A. 1956 की धारा 5 में दिया गया है।इस अधिनियम में वेश्यावृत्ति हेतु मनुष्य को खरीदने अथवा उसे ले जाने का उल्लेख है। इस धारा 5 के अनुसार किसी व्यक्ति को खरीदने का प्रयास या उसे ले जाने का प्रयास अथवा किसी व्यक्ति को वेश्यावृत्ति के लिए प्रेरित करना भी अवैध व्यापार के अंतर्गत आता है। इस प्रकार ‘अवैध व्यापार’ को विस्तृत क्षेत्र प्राप्त होता है।
अवैध मानव व्यापार एक प्रक्रिया है और वेश्यावृत्ति इसके परिणामों में से एक है।I.T.P.A1956 की धारा 2(F) में वेश्यावृत्ति को व्यापारीकरण के प्रयोजनार्थ किए जाने वाले यौन शोषण अथवा व्यक्तियों के दुरूपयोग के रूप में परिभाषित किया गया है और तदनुसार "वेश्या" शब्द की व्याख्या की गई है। अतः यदि किसी व्यक्ति का यौन शोषण अथवा दुरूपयोग किया जा रहा है और कोई दूसरा व्यक्ति उस शोषण /दुरूपयोग से व्यापारिक लाभ प्राप्त कर रहा है तो पहले व्यक्ति को वेश्यावृत्ति करने वाला माना जाएगा।
मानव दुर्व्यापार-आधुनिक दासता
मानव दुर्व्यापार आधुनिक मानव दासता का वह स्वरूप है जिसमें नशीले पदार्थों एवं हथियारों की तस्करी के उपरान्त सर्वाधिक लाभ प्राप्त होता है। यह मानवीय पीड़ाओं से जुड़ा वह व्यापार है, जिससे मानव अधिकारों का सीधा हनन होता है। कदाचित अन्य अपराध इनते जघन्य नहीं होते जितना की मानवीय पीड़ाओं से एवं कष्टों से युक्त यह व्यापार होता है।मानव दुर्व्यवहार को कई प्रकार से परिभाषित किया गया है। यह एक ऐसा व्यापर है, जिसे सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक कारणों से वर्जनीय माना गया है। मानव दुर्व्यापार उस आपराधिक प्रथा को इंगित करता है जिसमें मानव का एक वस्तु की तरह शोषण करने लाभ कमाया जाता है। यह शोषण इस तथाकित व्यापार के बाद भी जारी रहता है। मानव दुर्व्यापर में पीड़ित पर नियन्त्रण रखने हेतु पीड़ित को व्यक्तिगत अभिरक्षा में बंदी स्वरुप रखा जाता है, आर्थिक नियन्त्रण में रखा जाता है तथा धमकियों एवं हिंसा का भी सहारा लिया जाता है।इस हथकंडे के द्वारा पीड़ित पर पूरी तरह से नियन्त्रण सुनिश्चित किया जाता है। पीड़ितों को भूखा रखना, अँधेरे कमरे में कैद कर देना, पीटना, यातना देना, सिगरेट से उनके अंगों को जलाना, गला घोंटना, चाक़ू मारना, परिजनों की हत्या की धमकी दना या उनका कत्ल कर देना, नशीले पदार्थो का जबरन सेवन करवा का उन्हें इनका आदी बना देना, उनके रूपये- पैसे जब्त कर उनको असहाय बना देना, आदि सामान्य हथकंडे इस व्यापर में अपनाये जाते है। इस प्रकार रोटी, कपड़ा, पैसा अन्य समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पीड़ित इन व्यापारियों पर पूर्णतया निर्भर हो जाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार ‘किसी व्यक्ति को डराकर, बलप्रयोग कर या दोषपूर्ण तरीके से भर्ती, परिवहन या शरण में रखने की गतिविधि तस्करी की श्रेणी में आती है’। दुनिया भर में 80 प्रतिशत से ज्यादा मानव तस्करी यौन शोषण के लिए की जाती है, और बाकी बंधुआ मजदूरी के लिए। भारत को एशिया में मानव तस्करी का गढ़ माना जाता है। सरकार के आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में हर 8 मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है। सन् 2011 में लगभग 35,000 बच्चों की गुमशुदगी दर्ज हुई जिसमें से 11,000 से ज्यादा तो सिर्फ पश्चिम बंगाल से थे। इसके अलावा यह माना जाता है कि कुल मामलों में से केवल 30 प्रतिशत मामले ही रिपार्ट किए गए और वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है।
मानव तस्करी भारत की प्रमुख समस्याओं में से एक है। आज तक ऐसा कोई अध्ययन नहीं किया गया जिससे भारत में तस्कर हुए बच्चों का सही आंकड़ा पता चल सके। न्यूयार्क टाइम्स ने भारत में, खासकर झारखंड में मानव तस्करी की बढ़ती समस्या पर रिपोर्ट दी है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि छोटी उम्र की लड़कियों को नेपाल से तस्करी कर भारत लाया जाता है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित एक अन्य लेख के अनुसार मानव तस्करी के मामले में कर्नाटक भारत में तीसरे नंबर पर आता है। अन्य दक्षिण भारतीय राज्य भी मानव तस्करी के सक्रिय स्थान हैं। चार दक्षिण भारतीय राज्यों में से प्रत्येक में हर साल ऐसे 300 मामले रिपोर्ट होते हैं। जबकि पश्चिम बंगाल और बिहार में हर साल औसतन ऐसे 100 मामले दर्ज होते हैं। आंकड़ों के अनुसार, मानव तस्करी के आधे से ज्यादा मामले इन्हीं राज्यों से हैं। नशीली दवाओं और अपराध पर संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के द्वारा मानव तस्करी पर जारी एक ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि सन् 2012 में तमिलनाडु में मानव तस्करी के 528 मामले थे। यह वास्तव में एक बड़ा आंकड़ा है और पश्चिम बंगाल, जहां यह आंकड़ा 549 था, को छोड़कर किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे अधिक है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार चार सालों में कर्नाटक में मानव तस्करी के 1379 मामले रिपोर्ट हुए, तमिलनाडु में 2244 जबकि आंध्र प्रदेश में मानव तस्करी के 2157 मामले थे। हाल ही में बेंगलुरु में 300 बंधुआ मजदूरों को छुड़ाया गया। फस्र्टपोस्ट के एक लेख के अनुसार दिल्ली भारत में मानव तस्करी का गढ़ है और दुनिया के आधे गुलाम भारत में रहते हैं। दिल्ली घरेलू कामकाज, जबरन शादी और वेश्यावृत्ति के लिए छोटी लड़कियों के अवैध व्यापार का हॉटस्पॉट है।
बच्चे , खासतौर पर छोटी लड़कियां और युवा महिलाएं जो कि ज्यादातर उत्तरपूर्वी राज्य से होती हैं, उन्हें उनके घरों से लाकर दूरदराज के राज्यों में यौन शोषण और बंधुआ मजदूरी के लिए बेचा जाता है। ऐजेंट इनके माता पिता को पढ़ाई, बेहतर जिंदगी और पैसों का लालच देकर लाते हैं। ऐजेंट इन्हें स्कूल भेजने के बजाय ईंट के भट्टों पर, कारपेंटर, घरेलू नौकर या भीख मांगने का काम करने के लिए बेच देते हैं। जबकि लड़कियों को यौन शोषण के लिए बेच दिया जाता है। यहां तक कि इन लड़कियों को उन क्षेत्रों में शादी के लिए मजबूर किया जाता है जहां लड़कियों का लिंग अनुपात लड़कों के मुकाबले बहुत कम है। आदिवासी क्षेत्रों के बच्चों पर मानव तस्करी का खतरा सबसे ज्यादा है। हाल ही में ऐसे कई मामले देखे गए जहां ज्यादातर बच्चे मणिपुर के तामेंगलांग जिले में कुकी जनजाति से थे। इसका कारण आदिवासियों का संघर्ष था जिससे मानव तस्करी को फलने फूलने का मौका मिला। सन् 1992 से 1997 के बीच उत्तरपूर्वी क्षेत्र में कुकी और नागा जनजाति के बीच हुए संघर्ष से कई बच्चे बेघर हो गए। इन बच्चों को ऐजेंट देश के अन्य हिस्सों में ले गए।
संयुक्त राष्ट्र का प्रोटोकॉल जो मानव दुर्व्यापार विशेषतः महिलाओं एवं बच्चों के सन्दर्भ में, इसको रोकने, उन्मूलन करने तथा दंडित करने के सम्बन्ध में है, उसके अनुसार इसकी परिभाषा निम्न प्रकार से दी गई है-
किसी भी व्यक्ति को भय के द्वारा, बलात प्रयोग द्वारा, अपहरण द्वारा, धोखे से, लालच द्वारा, बहला-फुसलाकर, पद के दुरुपयोग द्वारा व अन्य साधनों से भर्ती करना, ले जाना, स्थानांतरित करना, अभिरक्षा में रखना एवं लाभ प्राप्ति तथा शोषण द्वारा उस पर नियन्त्रण रखना। इस प्रकार के शोषण में इन शोषितों से देहव्यापार करवाना, शारीरिक शोषण करना, जबरन बेगा करवाना अथवा बलात सेवाएं लेना, दासता में रखना अथवा दासवत व्यवहार करना एवं इन शोषितों क अंगों का व्यापार करना, इत्यादि सम्मीलित हैं।
मानव दुर्व्यापार आधुनिक समय की दासता का एक भयावह प्रतिरूप है। इस दासता में साम, दण्डं, भेद सभी का प्रभावी समावेश होता है। यह शतरंज का एक ऐसा खेल है, जिसमें विभिन्न प्यादे अपनी=अपनी चल से खेल खेलते है, जिनका संचालन बड़े-बड़े प्रभावशाली लोगों द्वारा किया जाता है। देहशोषण का कार्य परम्परागत कोठों से अब अभिजज्य वर्ग के रिहायशी इलाको की ओर पलायन कर रहा है। आधुनिक तकनीकी का इसे बढ़ाने हेतु भरपूर प्रयोग किया जा रहा है। मनुष्य दुर्व्यापर एक ऐसी त्रासदी है, जिसकी ओर जागरूक समाज का ध्यान तो आर्कषित होता है, तदुपरान्त चिन्तन एवं मनन भी होता है, परन्तु सफलता की कूंजी हाथ नहीं आती। यह व्यापार का वह विकृत स्वरुप है, जिसके बारे में समग्र एवं प्रमाणिक तथ्य आज भी उपलब्ध का नहीं है। इसके बारे में ज्ञात है, वह है मानवीय समूहों का व्यापक पैमाने पर परिवारों से दूर विस्थापन, उनकी अकल्पनीय शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न भरी कष्टमय जिन्दगी तथा मरणोपरांत इन सबको छुटकारा। इस प्रकार ने केवल मानव की गरिमा ही खंडित होती है, अपितु परिवार के परिवार तबाह हो रहे हैं।