(2.) अवैध मानव व्यापार तथा अन्य का वेश्यावृत्ति शोषण रोकने के लिए अभिसमय 1949 ,
(3.) बच्चों के अधिकार संबंधी अभिसमय 1989 ,
(4.) मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 1948 ,
(5.) बलात् श्रम संबंधी अभिसमय संख्या 29 ,
(6.) दासत्व अभिसमय 1927 ,
(7.) बालश्रम पर प्रतिबंध तथा इसके निकृष्ट स्वरूपों के प्रति तत्काल कार्रवाई 1999 के संबंध में अभिसमय संख्या 182 ,
(8.) नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों संबंधी अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय 1966 ,
(9.) आर्थिक , सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों संबंधी अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय 1966 ,
(10.) अधिकार एवं पर्यटन संहिता संबंधी पर्यटन विधेयक 1985 ,
(11.) पारदेशीय संगठित अपराध के खिलाफ सयुंक्त राष्ट्र अभिसमय 2000 के अनुपूरक के रूप में भूमि जल तथा वायु द्वारा प्रवासियों की तस्करी के खिलाफ नयाचार ,
(12.) महिलाओं के प्रति हर प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन संबंधी अभिसमय 1979 ,
(13.) सभी प्रवासी मजदूरों तथा उनके परिवार के सदस्यों के अधिकारी के संरक्षण संबंधी अभिसमय 1990 ,
(14.) मानव अधिकारों तथा अवैध मानव व्यापार के संबंध में U.N.O.H.C.H.R द्वारा संस्तुत सिद्धांत एवं दिशानिर्देश ।
भारतीय विधि के संदर्भ में मानव दुर्व्यापार
यधपि किसी कानून विशेष में अवैध मानव व्यापार की परिभाषा नहीं दी गई है फिर भी अवैध मानव व्यापार की परिभाषा नहीं दी गई है फिर भी अवैध मानव व्यापार संबंधी मुद्दों से निपटने के लिए कानूनों की भरमार है। व्यापारिक यौन शोषण के लिए किए जाने वाले अवैध मानव व्यापार को रोकने के लिए भारत में वर्ष 1956 में स्त्री तथा लड़की अनैतिक व्यापार दमन अधिनियम 1956 लागू किया गया। स्त्री तथा लड़की अनैतिक व्यापार दमन संशोधन अधिनियम 1986 की धारा 3 द्वारा वर्ष 1987 से अधिनियम की शब्दावली में परिवर्तन किया गया। आज इसे अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956 के नाम से जाना जाता है तथा यह भारत में अवैध मानव व्यापार के संबंध में मुख्य सांविधि है। भारत ने पारदेशीय संगठित अपराध अभिसमय को संवर्धित करते हुए अवैध मानव व्यापार, विशेषतः महिलाओं तथा बच्चों के अवैध व्यापार को रोकने, दबाने तथा दंडित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र नयाचार पर भी हस्ताक्षर किए हुए है। मजदूरों के अवैध व्यापार को रोकने के लिए भी हमारे पास विभिन्न सविधिया है।जो की इस प्रकार है;-
(1.) भारत का संविधान,
(2.) अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956 ,
(3.) भारतीय दंड संहिता 1860 ,
(4.) दंड प्रक्रिया संहिता 1973 ,
(5.) भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 ,
(6.) किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम 2000 ,
(7.) बालश्रम (निषेधाज्ञा एवं विनियमन) अधिनियम 1986 ,
(8.) बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम 1976 ,
(9.) सूंचना प्रौधोगिकी अधिनियम 2000 ,
(10.) मानव अंग प्रतिरोपण अधिनियम 1994 ,
(11.) दांडिक कानून संशोधन अध्यादेश 1944 ,
(12.) प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ओफ़्फ़ेन्सस एक्ट (पॉस्को) 2012 .
1. भारत का संविधान :- भारत के संविधान में अवैध मानव व्यापार स्पष्ट या अंतनिहित रूप से प्रतिबंधित है । अनुच्छेद 14 में समानता का प्रावधान है। अनुच्छेद 15 में धर्म मूलवंश जाति , लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध अनुच्छेद 15(3) में महिलाओं और बच्चों के विशेष संरक्षण हेतु प्रावधान है, यह कहता है कि "इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नही करेगी।" अनुच्छेद 16(1) में लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता का प्रावधान है। अनुच्छेद 23 में अवैध मानव व्यापर तथा बलात् श्रम का प्रतिबंध है। अनुच्छेद 24 में बच्चों को कारखानों में या खदानों में या उनकी आयु के लिए अनुपयुक्त जोखिम भरे कार्यो में नियोजन प्रतिषेध है। अनुच्छेद 38 के अनुसार राज्य को एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित किया जा सके। यह सामान्यतः समान परिणाम के लिए अवसर उपलब्ध कराने के लिए कहता है। अनुच्छेद 39 में प्रावधान है कि राज्य अपनी नीतियों का संचालन इस प्रकार करेगा कि अन्य बातो के साथ-साथ पुरुष और महिला को उनकी आयु एवं शक्ति के अनुकूल समान रूप से जीविका के साधन समान कार्य के लिए समान वेतन सुनिश्चित करेगा । अनुच्छेद 39(च ) में प्रावधान है कि बच्चों को स्वतंत्र एवं गरिमापूर्ण वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाए दी जाए और उनके बचपन के शोषण से रक्षा की जाए। अनुच्छेद 42 अमानवीय परिस्थितियों में कार्य के खिलाफ संरक्षण उपलब्ध कराता है। अनुच्छेद 45 में बच्चों के लिए निः शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रावधान है जिसे अनुच्छेद 21(क) में बच्चों के मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया है। अनुच्छेद 46 राज्य को महिलाओं तथा कमजोर वर्गों के शैक्षणिक एवं आर्थिक हितों के संवर्धन का तथा उन्हें सामाजिक अन्याय तथा हर प्रकार के शोषण से संरक्षित रखने का निर्देश देता है।
2. अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956:- I.T.P.A1956 का मुख्य प्रयोजन आजीविका के रूप में वेश्यावृत्ति के लिए महिलाओं एवं लड़कियों के अवैध व्यापार को समाप्त करना है। इस अधिनियम के तहत आने वाले अपराध निम्नानुसार है;-
➤वेश्यालय चलाना या किसी परिसर को वेश्यालय के रूप में प्रयोग की अनुमति देना ।(धारा 3)
➤वेश्यावृत्ति से होने वाली आय पर जीवनयापन करना।(धारा 3)
➤वेश्यावृत्ति के लिए व्यक्तियों को उपलब्ध करना, उकसाना आदि। (धारा 5)
➤किसी व्यक्ति को ऐसे परिसर में नजरबंद करना जहां वेश्यावृत्ति की जाती हो।(धारा 6)
➤सार्वजनिक स्थल पर या उसके नजदीक वेश्यावृत्ति करना।(धारा 7)
➤वेश्यावृत्ति के उद्देश्य से किसी को बहकाना या तैयार करना।(धारा 8)
➤अभिरक्षा में किस व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार करना।(धारा 9)
3. भारतीय दंड संहिता 1860:- भारतीय दंड सहिंता में विविध प्रावधान है जो अवैध व्यापार किए गए व्यक्ति के विभिन्न उल्लखित अधिकारों जो परिणामतः विभिन्न दांडिक अपराध बन जाते है, से संबंधित प्रावधान है , धारा 293 ,धारा 294 , धारा 317 , धारा 341 , धारा 342 , धारा 354 , धारा 363 , धारा 363क , धारा 365 , धारा 366क , धारा 366ख , धारा 370 , धारा 371 , धारा 372 , धारा 373 , धारा 375 , धारा 498 , धारा 509 , एवं धारा 511 के अंतर्गत आते है।
4. दंड प्रक्रिया संहिता 1973 :- इस संदर्भ में प्रासंगिक धारा 51(2) , धारा 53(2) , धारा 98 , धारा 160 , धारा 327 (2) , तथा धारा 357.
5. भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 :- इस संदर्भ में धारा 114क तथा धारा 151 प्रासंगिक है।
6. किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम 2000 :- इस अधिनियम का उद्देश्य बालको एवं किशोरों को सुरक्षा दिलवाना है। यह भटके किशोरों की सहायता प्रदान करते है की वह एक अच्छे व्यक्ति बन सके। इसमें असहाय , अनाथ , व पथभ्रष्ट बालक आ जाते है।
7. बालश्रम (निषेधाज्ञा एवं विनियमन) अधिनियम 1986 :- इस अधिनियम की एक अनुसूची के भाग-क में दिए गए विशिष्ट पेशों , कार्यों में बच्चों को नियोजित करना निषिद्ध है। अधिनियम में बच्चों के कार्य की परिस्थितियां दी गई है।
8. बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम 1976 :- इस अधिनियम में अग्रिम , समझौता , आरोहत या अवरोहत , बंधत्व ऋण , बंधुआ मजदूरी प्रथा की परिभाषा दी गई है तथा यथोचित कार्रवाई करने का प्रावधान है।
9. सूंचना प्रौधोगिकी अधिनियम 2000 :- यह पुरे भारत में लागू है तथा इसे अपरदेशीय क्षेत्राधिकार भी प्राप्त हैं। इस अधिनियम की धारा 67 किसी भी ऐसी सामग्री जो कामुक हो या कामी हितों को आकर्षित करती हो, या उसका प्रभाव ऐसा हो जो उसे पड़ने देखने या सुनने वाले को सभी संगत परिस्थितियों में संभवतः भ्रष्ट कर दे या उसके चरित्र को नष्ट कर दे, के इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रकाशन या प्रसारण को दंडनीय मानती है।
10. मानव अंग प्रतिरोपण अधिनियम 1994 :- इस अधिनियम के दो उद्देश्य निम्नानुसार है;-
➤उपचारात्मक प्रयोजनों के लिए मानव अंगो को निकलने उन्हें सहेजकर रखने तथा प्रतिरोपण के लिए विनियम उपलब्ध कराना।
➤मानव अंगों से संबंधित होने वाले व्यापार को रोकना इस अधिनियम में मानव अंगो को निकलने उन्हें सहेज कर रखने तथा प्रतिरोपण के कार्य में लिप्त अस्पतालों के विनियमन तथा पंजीकरण का भी प्रावधान है।
11. दांडिक कानून संशोधन अध्यादेश 1944 :- इस अधिनियम में कोई भी अनुसूचित अपराध कारित करने की स्थिति में संपति कुर्क करने का प्रावधान है।
12. प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ्रॉम ओफ़्फ़ेन्सस एक्ट (पॉस्को) 2012 :- पॉस्को, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण करने संबंधी अधिनियम (Protection of Children from Sexual Offences Act – POCSO) का संक्षिप्त नाम है।पॉस्को एक्ट-2012 के अंतर्गत बच्चों के प्रति यौन उत्पीड़न और यौन शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे जघन्य अपराधों को रोकने के लिए, महिला और बाल विकास मंत्रालय ने पोक्सो एक्ट-2012 बनाया था।वर्ष 2012 में बनाए गए इस कानून के तहत अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सजा तय की गई है, पास्को अधिनियम की धारा 7 और 8 के तहत वो मामले पंजीकृत किए जाते हैं जिनमें बच्चों के गुप्तांग से छेडछाड़ की जाती है, इस धारा के आरोपियों पर दोष सिद्ध हो जाने पर 5 से 7 साल तक की सजा और जुर्माना हो सकता है. इस एक्ट को बनाना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि बच्चे बहुत ही मासूम होते हैं और आसानी से लोगों के बहकाबे में आ जाते हैं. कई बार तो बच्चे डर के कारण उनके साथ हुए शोषण को माता पिता को बताते भी नही है। traffickingजो लोग यौन प्रयोजनों के लिए बच्चों का व्यापार (child trafficking) करते हैं उनके लिए भी सख्त सजा का प्रावधान है।
मानव दुर्व्यापार से संबंधित वाद
प्रमुख वाद इस प्रकार है,जो की निम्नलिखित है;-
गौरव जैन बनाम भारत संघ (1997) 8 S.C.C 114 A.I.R 1997 S.C. 3021 के वाद में उच्चत्तम न्यायालय ने निर्णय दिया कि वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं के बच्चों को भी अपने ऊपर बिना किसी कलंक के सामाजिक जीवन की मुख्य धारा के एक भाग के रूप में अवसरों की समानता , गरिमा , देखभाल , संरक्षण तथा पुनर्वास का अधिकार है। न्यायालय ने ऐसे बच्चों तथा बाल वेश्याओं के पुनर्वास हेतु एक समिति गठित करने तथा इसकी रजिस्ट्री के कार्यान्वयन तथा आवधिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है।
विशालजीत बनाम भारत संघ एवं अन्य A.I.R. 1990 S.C. 1412 सेक्स वर्कर्स तथा उनके बच्चों के लिए कल्याणकारी एवं पुनर्वास योजनाओं की मॉनीटरिंग एवं मूल्यांकन हेतु यथोचित समितियों का गठन करने के लिए केंद्र सरकार तथा विभिन्न राज्य सरकारों को निर्देश दिए गए। तथापि ऐसे सभी मामलों जिनमें पुलिस कार्मिकों ने अवैध व्यापार करने वालों दलालों तथा वेश्यालय चलाने वालों की मदद की है, में C.B.I. को राष्ट्रव्यापी जाँच करने के निर्देश देना व्यवहार्य नहीं है।
रामू बनाम राज्य 1995 C.R.L.J 2525 मद्रास असहाय तथा भोली-भाली अवयस्क लड़कियों को वेश्यावृत्ति में घसीटने वाले आरोपी व्यक्ति पर या तो महिलाओं का अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम 1956 की धारा 5(ग) के तहत या फिर भारतीय दंड संहिता की धारा 366 के तहत अभियोजन चलाया जा सकता है या दंडित किया जा सकता है। सामान्य खंड अधिनियम की धारा 26 के अनुसार जब कोई कार्य दो या उससे अधिक विधायनो के तहत् अपराध माना जाता है तो अपराध करने वाले पर दोनों में से किसी भी विधायन के तहत अभियोजन चलाया जा सकता है और ऐसा अभियोजक के विवेक पर निर्भर करता है।
कुमारी संगीता बनाम राज्य एवं अन्य 1995 (101) C.R.L.J. 3923 दिल्ली अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम धारा 17 (5) न्यायाधिकरणों का गठन तथा संरचना -"सकता है" शब्दों का अर्थ "किया जाना चाहिए" समझना चाहिए और मजिस्ट्रेट के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वह अधिनियम की धारा 17 (2) के तहत् अपने दायित्वों का निर्वाह करते समय पांच गणमान्य व्यक्तियों के एक पैनल की सहायता ले।
प्रेमा देवी तथा प्रेमा चौधराईन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1997 (103) C.R.L.J.3572 अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम की धारा 3 एवं धारा 5 के तहत् वेश्यालय चलाने तथा अवयस्क लड़कियों को वेश्यावृत्ति करने के लिए बाध्य करने वाली आरोपी महिला को अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 के तहत् या अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956 की धारा 10 के तहत् कोई लाभ नहीं दिया जाना चाहिए चाहे वो जमानत पर बाहर हो और काफी लंबी अवधि तक कारावास में रही हो।
निर्मला रानी बनाम तमिलनाडु राज्य 2003 (109) C.R.L.J. 3108 मद्रास अवैध व्यापार करने वालों तथा पुलिस के बीच के आपराधिक गठजोड़ का खुलासा करने का प्रयास करने वाली प्रार्थी घृणा, उपेक्षा तथा पुलिस की दुर्भावना ग्रसित जाँच का शिकार बनी उसे बड़ी मात्रा में हर्जाना दिया गया क्योकि राज्य तथा उसके अंगो ने उसे अनावश्यक मानसिक यातना दी तथा उसके मौलिक अधिकारों का हनन किया।
नीरजा चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1984) 3 S.C.C. 243 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है की बांडेड लेबर सिस्टम (एबालिशन) एक्ट,1976 के अधीन सरकार का कर्तव्य केवल बंधुआ श्रमिकों को मुक्त करना ही नही वरन उनके पुनर्वास की उचित व्यवस्था करना भी है जिसके आभाव में वे फिर शोषण के शिकार हो सकते हैं। उक्त अधिनियम का कार्यान्वयन न करना अनुछेद 23 का सरासर उल्लंधन है।
बंधुआ मुक्तिमोर्चा बनाम भारत संघ A.I.R.1984 S.C.802 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जब न्यायालय में लोकहित वाद के माध्यम से यह आरोप लगाया जाता है कि किसी स्थान पर बंधुआ मजदुर है तो राज्य को इसका स्वागत करना चाहिये क्योकि इससे सरकार को यह जाँच करने का कि क्या श्रमिकों से बलतश्रम लिया जा रहा है और साथ उसे कैसे समाप्त किया जा सकता है दोनों के लिए अवसर मिलता है । अनुछेद 23 के अधीन सरकार का यह एक सांविधानिक कर्त्तव्य है। अनुछेद 23 ने बंधुआ मजदुर प्रणाली को समाप्त कर दिया है। इसी उद्देश्य से संसद ने बंधुआ मजदुर प्रणाली उन्मूलन अधिनियम ,1976 पारित किया है।
बचपन बचाओ आंदोलन बनाम भारत संघ (2011) 5 SCC के मामले में बचपन बचाओ आंदोलन की बड़ी पहल बचपन बचाओ आंदोलन के भुवन नामक कार्यकर्ता ने जनवरी 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा काम दिलाने के नाम पर बच्चों और औरतों की तस्करी पर रोक लगाने की मांग की।तब यह बात उजागर हुई कि सरकार ने ऐसी एजेंसियों पर अंकुश रखने के लिए कोई कानून ही नहीं बनाया है।इस मामले के उजागर होने के बाद प्लेसमेंट कंपनियों के लिए श्रम विभाग के अधीन पंजीयन कराने की व्यवस्था बनी।इस पूरी कार्रवाई में करीब दो साल का समय लगा। जिसके बाद इस वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह आदेश दिया गया की मानव दुर्व्यापार को रोकने के कानून का निर्माण किया जाए। एवं मानव दुर्व्यापार से मुक्त कराए गए बच्चों को सहायता व सूरक्षा प्रदान की जाए।
पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ A.I.R.1982 S.C.1473 के प्रसिद्ध मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 23 के क्षेत्र को पर्याप्त विस्तृत कर दिया है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि 'बेगार' से तात्पर्य ऐसे काम या सेवाओं से है जिसे किसी व्यक्ति से बलपूर्वक बलातश्रम बिना पारिश्रमिक दिये लिया जाता है। अनुच्छेद 23 केवल 'बेगार' को ही नहीं, बल्कि इसी प्रकार के सभी 'बलपूर्वक' लिए जाने वाले कार्य को भी वर्जित करता है; क्योकि इससे मानव की प्रतिष्ठा एवं गरिमा पर आघात पहुँचता है। अनुच्छेद 23 प्रत्येक प्रकार के 'बलातश्रम' को वर्जित करता है और यह इन दोनों में कोई अंतर नहीं करता कि बलातश्रम के लिए पारिश्रमिक दिया गया है अथवा नही। यदि किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा के विरुद्ध या दबाव से कार्य करना पड़ता है तो भले ही उसे पारिश्रमिक मिला हो, वह अनुच्छेद 23 के अधीन 'बलातश्रम' माना जायेगा। 'बलातश्रम' कई तरीके से लिया जा सकता है। इसमें शारीरिक दबाव, विधिक दबाव जहाँ किसी विधि के अधीन न कार्य करने पर दण्ड का उपबन्ध होता है। इस तक ही सीमित नहीं है बल्कि आर्थिक कठिनाइयों से उत्पन्न दबाव भी शामिल है, जहाँ उसे कम पारिश्रमिक में कार्य करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अनुच्छेद 23 के विस्तृत निर्वचन में ऐसे श्रम भी आते है। प्रस्तुत मामले में एशियाड प्रोजेक्ट में लगे श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी 9.25 रुपये में से जमादार ने प्रति श्रमिक 1 रुपया अपना कमीशन काटकर केवल 8.25 रूपये ही दिया था जिसके परिणामस्वरूप उन्हें न्यूनतम मजदूरी नहीं मिली थी। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिधारित किया कि यह अनुच्छेद 23 का सरासर उल्लंघन था और सम्बंधित प्राधिकारियों को निर्देश दिया कि ठेकेदारों से वह धन वापस लेकर श्रमिकों को दिलायें और उनके विरुद्ध समुचित कार्यवाही करें। अनुच्छेद 23 और 24 न्यूनतम मजदूरी अधिनियम,1948 के अधीन नागरिकों के मूल अधिकारों के उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध समुचित कार्यवाही करना राज्य का एक सविधानिक कर्त्तव्य है।